विडंबना या नियति: नारी की समानता पर छलनी है कानून

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चौंसठ साल के आजाद हिंदुस्तान ने भारतीय महिलाओं को विश्व पटल पर छाते देखा, अंतरिक्ष पर जाते देखा पर अपनी ही भूमि पर उन्हें बराबरी का हक नहीं दिला सका। समानता के लिए सदियों से चली आ रही आम महिला की जंग अभी खत्म नहीं हुई। शक्ति और धैर्य का पर्याय मानी जाने वाली महिला को समानता दिलाने में पुराने कानून असमर्थ हैं। इस छलनी में तमाम छेद हैं पर देखने वालों की नजर में सब ठीक है।

21वीं सदी में भी पति के जारकर्म (अनैतिक संबंध) के खिलाफ पत्नी आपराधिक मामला नहीं दर्ज करा सकती। मसला चाहे तलाक लेने पर पति की संपत्ति पर हक का हो या सड़क पर पीछा करने वाले के खिलाफ कार्रवाई का, महिलाओं के बचाव में कानून फिलहाल निर्वात में है। इसे दुर्भाग्य कहें या बदलाव की बयार की कछुआ चाल। स्वतंत्रता के 64 साल बाद भी देश गर्व से नहीं कह सकता कि यहां महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं।

1. सड़क दुर्घटना में घरेलू महिला (हाउस वाइफ) को कम मुआवजा दिया जाता है। मोटर वाहन अधिनियम की धारा 6 में आय के आधार पर मुआवजा तय है। इस धारा में दुर्घटना के पीड़ितों को दो वर्ग में बांटा गया है। पहला न कमाने वाला व्यक्ति, दूसरा पत्नी। इसमें घरेलू महिला के दुर्घटनाग्रस्त होने या मौत पर पति की आय के एक तिहाई हिस्से को मुआवजे का आधार बनाया जाता है। यह वर्गीकरण घरेलू महिलाओं के महत्व का समुचित मूल्यांकन नहीं है। घर के सभी कामकाज महिलाओं के हवाले होते हैं। ऐसे में उनकी उपयोगिता का मूल्य स्पष्ट है।

2. जारकर्म (अडल्ट्री) कानून में पति को अपनी पत्नी के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत कार्रवाई का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन पत्नी को पति के साथ संबंध रखने वाली महिला के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। यदि पति के साथ कोई महिला सहमति से संबंध रखती है तो पत्नी कुछ नहीं कर सकती। यहां पर कानूनी तौर पर पत्नी यानी महिला के साथ समान व्यवहार नहीं किया गया है। इस कानून पर कई सालों से बहस जारी है। लेकिन अब तक इसमें संशोधन करने पर विचार तक नहीं किया गया है।

3. सेना के कानून में सेवाएं देने के मामले में भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं है। उनसे सिर्फ अस्थायी कमीशन के तहत सेवाएं ली जाती रही हैं। इस मुद्दे पर हाईकोर्ट महिलाओं के पक्ष में फैसला दे चुका है और अब मामला सर्वोच्च अदालत में है। सेना अधिनियम-1950 में जारी इस असमानता के खिलाफ अस्थायी कमीशन पर नौकरी कर रही महिलाएं मोर्चा संभाले हैं। लेकिन महिलाओं के समान अधिकार का हल्ला मचाने वाली सरकार भी सेना के इस तर्क से सहमत है कि नाजुक काया को जंग के मैदान पर भेजना मुसीबत को दावत देना होगा।

4. बाबुल की गलियां छोड़ पति के साथ घर बनाने वाली महिला को समान अधिकार नहीं है। पति यदि तलाक लेता है तो पत्नी का उसकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहता। उसे गुजारे भत्ते के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। जहां एकमुश्त या मासिक भत्ते की राशि तय की जाती है। पति बेरोजगार है तो पत्नी के लिए बड़ी परेशानी है। वह उससे कुछ नहीं ले सकती। भले ही पति के पास संपत्ति हो और निजी तौर पर वह उसका उपयोग कर रहा हो। कानूनविदों के बीच पति की संपत्ति पर पत्नी को समान अधिकार प्रदान करने की बहस कई बार छिड़ी है। लेकिन अब तक बेनतीजा।

5. कार्यालयों में महिलाओं के यौन उत्पीड़न पर सरकार ने सर्वोच्च अदालत की ओर से 1997 में फैसला जारी करने के बावजूद इस पर कानून बनाने की तकलीफ नहीं की। पूरे देश में फैसले में अदालत की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों का अनुपालन कराने में भी सरकार अब तक पूरी तरह से सक्षम नहीं है। क्योंकि घर चलाने के लिए बाहर निकलने वाली महिलाओं को इसकी शिकायत करने पर भी तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। उन पहलुओं पर देश की सत्ता चलाने वालों ने गौर करना भी उचित नहीं समझा है। तमाम सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि भारत में काम करने वाली महिलाओं को कार्यालयों में आए-दिन यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।