पुरानी जीन्स और गिटार

 सरकारी आदेश के तहत तार को जब मौत के घाट उतारा गया तो तार का मातम मनाने वालों ने इसे भी समारोह बना डाला।
तार क्रांति ऐतिहासिक थी। तार आया तो प्रिंट मीडिया में खबर की रफ्तार बढ़ गई। सब अंग्रेजों की माया। उनका कब्जा। उनका सब्जा!
अपने शासन को मजबूत करने के लिए तार लाया गया। अगर तार न होता तो अंग्रेज अठारह सौ सत्तावन की क्रांति को न रोक पाते। इतिहास बताता है कि जब दिल्ली में क्रांतिकारियों का राज कायम हो गया तब लाल किले के पीछे-पीछे जाने वाले तारों के जरिए कलकत्ते तक एक अंग्रेज तार बाबू ने ही खबर पहुंचाई कि दिल्ली हाथ से निकल गई है, तुरत फौज भेजिए!
क्रांतिकारी सिपाहियों को यह पता नहीं था कि तार के जरिए भी अंग्रेज अपनी फौज मंगा कर विद्रोह को कुचल सकते हैं। यही हुआ। सिपाहियों को तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ाया गया। दिल्ली पर अंग्रेज काबिज हो गए। इतिहास फिर फिरंगी के हवाले हो गया।
इतिहास की यह पलट तार ने की। उसकी तकनीक ने की। रेललाइन के साथ-साथ जाने वाले तार देश भर में फैल गए। भारत पर एकछत्र शासन लाने में तारघरों ने बड़ी मदद की।
तब तक भारतीय लोगों ने तार के जादू को समझ लिया था। एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए तार के संदेशों का उपयोग किया था। आजादी की लड़ाई में तार का भरपूर उपयोग होने लगा। इस तरह जो तकनीक 1857 में दमन के लिए इस्तेमाल हुई वही आजादी की लड़ाई के लिए कारगर होने लगी। ‘भारत छोड़ो’ के दौरान आजादी के लिए लड़ने वालों ने कई जगह तार के खंभे इसीलिए उखाड़ दिए ताकि अंग्रेज इकट््ठे होकर दमन न कर सकें। संचार में बयालीस तक बहुत कुछ बदल गया था!
उसके बाद तार जनता के लिए दुख-सुख का तुरंत समाचार देने वाला माध्यम बन गया। उसका ज्यादा इस्तेमाल ज्यादातर फौज में, व्यापार में, राजनीति में और पत्रकारिता में होने लगा। जनता के बीच वह नौकरी की या शोक की खबर देने वाला माना जाने लगा। तार माध्यम से आगे बढ़ कर ‘संदेश’ बन गया। आते ही सबको सांप सूंघ जाता। सिपाहियों के मरने की खबर तार से आती। सर्वत्र शोक व्याप्त कर देती। तार से भावनात्मक संबंध ठहर गया। टेलीप्रिंटर आया और अखबारों को रिपोर्ताज मिलने लगे। खबरें ज्यादा ताजा होने लगीं।
सब चलता रहता अगर बेतार क्रांति और आगे वाली उपग्रह क्रांति न हुई होती, उससे जुड़ी ताबड़तोड़ टीवी, मोबाइल और इंटरनेट क्रांति एक के बाद एक न हुई होती।
और जैसा कि होता है, तकनीकी जिस गति से पिछले पचास साल में बदली है, उतनी तेजी से कुछ नहीं बदला। जितनी तेजी से तकनीकी बदली, उतनी ही तेजी से समाज का ढांचा, समाज का संचार और व्यवहार बदला।
टीवी आया तो पहली गाज सिनेमाघरों पर गिरी, नाटकोंपर गिरी। उसने इन दो विधाओं को आत्मसात कर लिया। किताब पर गिरी, उसे भी आत्मसात कर लिया। दुनिया देखते-देखते ग्लोबल विलेज बन गई।
इसके आगे के काम इंटरनेट और मोबाइल ने पूरे किए। सबको तुरता समय में सबसे जोड़ दिया। कनेक्टिविटी इतनी तेज और चपल हो गई कि काल का बंधन टूट गया।
संचार की नई तकनीकों के लगातार बदलाव का सबसे ज्यादा असर डाक और तार पर ही पड़ा। इंटरनेट ने, मोबाइल संदेशों ने चिट््ठी-पत्री बेकार कर दी। उदारीकरण ने डाकिए की जगह कूरियर को दे दी। मनीआॅर्डर की जगह टेली-मनीआॅर्डर ने ले ली। अब तो डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना ने इन सबको पीछे छोड़ दिया।
जिस दिन मोबाइल आया उसी दिन तारघर की सीमा समझ में आ गई थी। मोबाइल ने लोगों के बीच संवाद को इतना सरल कर दिया कि तारघर जाने की जगह एक एसएमएस ही काफी रहने लगा। तार कम होने लगे, मोबाइल बढ़ने लगे। मोबाइल के आगे तार सर्वत्र हारा, यहां भी हारा।
मोबाइल ने रील वाले कैमरे तक को बंद कर दिया। डिजिटल क्रांति ने मोबाइल रील वाले पुराने ढंग के मोबाइल कैमरे तक को बेकार कर दिया। अब हर आदमी कैमरामैन है, हर आदमी संपादक है, हर आदमी खरिया है कमाल है।
जिस पीढ़ी के हाथों मेंमोबाइल है- जिसमें कैमरा है, इंटरनेट है, रेडियो है- उसी ने तार के विदा होने पर सबसे ज्यादा नाटकीय दृश्य पैदा किए।
जिस दिन तार बंद किया गया उस दिन का नजारा मजेदार रहा। जिस युवा पीढ़ी के लोग कभी तारघर तक नहीं गए, सैकड़ों की संख्या में तारघर पहुंचे और चार रुपए के एक शब्द के रेट से राष्ट्रपति, राहुल गांधी और मनमोहन जी को तार दिए। कुछ ने तारघरों के आगे खडेÞ होकर अपने-अपने मोबाइल से एक दूसरे के फोटो खींचे। इस तरह से वे तार के ‘इतिहास’ में शामिल हुए।
फुकुयामा के ‘इतिहास का अंत’ की सिद्धांतिकी का मर्म इस घटना से समझा जा सकता है। जरा देखें: जिस मोबाइल ने तार की विदाई सुनिश्चित की, वह युवा पीढ़ी का जबर्दस्त संचार माध्यम है। मोबाइल क्रांति ने तार को पहले ही बेकार कर दिया था। जो मोबाइल पीढ़ी तार के लिए शोक मनाने आई वह मोबाइल सहित आई। वह चाहती तो न आती लेकिन तार के जाते हुए क्षण की वह गवाह होना चाहती थी। तार उसके लिए अजनबी था।
इसीलिए वह हाजिर रहना चाहती थी। मोबाइल ने उसे मारा यह जानते हुए भी वह तार को आखिरी बार देखने आई। यह दुख-रहित नाटकीय शोक था, यह सहानुभति-रहित गवाही थी कि वह मरा और उसे हमने मरते हुए देखा। फेसबुक पर, ट्विटर पर आती ओपीनियनें सुपरिचित वाग्विलास की तरह रहीं। कमतर शब्दों, उक्ति वैचित्र्य के उदाहरण रहीं।
मोबाइल पीढ़ी अपने में मोबाइल जगत में सिमटी, आत्मनिर्भर ‘होना मांगती’, अतीत के बोझ से मुक्त, एकदम निर्भार, मुखर, चपल और विकल पीढ़ी है। उसका जगत उसे पसंद करने वालों (लाइक्स) से बना है। वह निज के इर्दगिर्द चर्चा जुटा कर मित्र बना कर चर्चा जुुटा कर, ‘मेरे फेसबुक मित्र बनिए’ का आग्रह कर-करके बनी है। वह ‘वर्तमान’ में नहीं ‘तत्काल’ में यकीन करती है। उसके पूर्व जो कुछ रहा वह पिछड़ा, थर्डवर्ल्डी, देशज, हिंदी मैला, पीछा छुड़ाने योग्य, विस्मृत कर देने योग्य यथार्थ रहा- जिसके हाथ में मोबाइल, कंधे पर रकसैक, रकसैक में लैपटॉप और पैरों में ‘नाइकी’ नहीं था। उसके पास ‘न्यून भाषा’ है। इसी अर्थ में वह ‘कम से कम वादी’ (मिनीमलिस्ट) है।
उसकी चारों तरफ की दुनिया उसके लिए मोबाइल में, इंटरनेट में है। उसका सकल ज्ञान उसके विकीपीडिया में है। उसकी दुनिया उसके दिमाग में न होकर उसके यंत्र में है। दिमाग का भी वह न्यूनतम और इकहरा उपयोग करता है। प्रसन्न होकर तार को विदाई देना-फोटो खिंचवाना इतिहास बनाना है।
तात्कालिकता इतनी आवेगमय है कि हर क्षण दर्शनशास्त्र में बाद में पुराना पड़ता है, इस पीढ़ी के लिए पहले व्यतीत हो जाता है। वह उस व्यतीत को अपने में व्यापा नहीं मानती। वह उससे अलग कहीं और बीता हुआ होता है। यह उसकी ‘टाइमिंग’ है।
इस तात्कालिकता में पुराने के प्रति, अतीत के प्रति, व्यतीत के प्रति ‘लगावट’ नहीं है। वह ‘तुरंता’ (इस्टेंट) है। ठहराव रहित वह ‘दिग्भ्रम’ में रहता है। उसकी मानसिकता का पक्का नक्शा किसी के पास नहीं है। उसके मन की अवस्था पर कोई नोट नहीं लिखा गया। न कविता में न कहानी में। न उपन्यास में। उसके अंतर्मन में नहीं जाया गया। वे हर घर में, हर कहीं हैं, आबादी के पचपन फीसद बताए जाते हैं। राजनेता, विविध दल उनको अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हैं। वे फेसबुक पर हैं, वे ट्विटर पर हैं, वे तुरंता उत्तेजक ओपीनियनों में हैं। वे परस्पर कटाक्षों में हैं, वे एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले कमेंटों में हैं।
यह इस लेखक की मोबाइल मरीचिका में मगन युवाओं के अलबेले और अनजान मन को छूने की कोशिश भर है। यह उसके राग-विराग को, उसके अतीत-व्यतीत को, उसके वर्तमान को टटोलने की कोशिश भर है। कि जैसे आप उससे दो मिनट बात कर लिए हों। इसका मतलब यह नहीं है कि यह पीढ़ी अनुत्पादक है या अरचनात्मक है या कल्पना-रहित है या भविष्य-रहित है या असामाजिक है। वह हर हाल में ‘भिन्न सामाजिक’ है। उसका ‘भिन्न सामाजिक’ होना उसे एक ही साथ हमसे दूर करता है और अनिवार्य भी बनाता है।
उसकी लगावट देखनी हो तो तार की विदाई के साथ-साथ आ रहे उस बडेÞ विज्ञापन को भी देखा जा सकता है जिसमें अतीत से, पुराने से उसकी लगावट का एक नया अध्याय रचा जाता दिखता है।
यह एक कार कंपनी और एक अंग्रेजी अखबार का विज्ञापन है, जो कार की तरह और अखबार की तरह ही तुरंता तात्कालिक है। कार खरीदी जाते ही कीमत गिराती जाती है और नित नए मॉडलों में हर क्षण पुरानी होती जाती है; अखबार शाम तक रद्दी हो जाता है। कार-कबाड़ देखने के लिए आप दिल्ली की मध्यवर्गीय सोसाइटियों पर नजर दौड़ाइए तो मालूम हो जाएगा कि वहां कारें आदमियों से कहीं ज्यादा हैं। चार रुपए के अखबार की रद््दी दस रुपए किलो में बिकती है।
हम विज्ञापन पर लौटें: पुरानी चीजों का एक बहुत ऊंचा-सा बड़ा-सा ढेर एक जगह बना है जिसमें घर में काम आने वाली तमाम पुरानी चीजें फेंकी गई हैं; एक-दो लोग उसको लिए जा रह हैं फेंकने। अंधेरा है। तभी पार्श्व में एक कोरस गूंजने लगता है: तू तू करने में क्या है मजा/ अब हम ही मैं और मैं ही हम! गाना बजता है, उधर एक युवती एक मशाल लेकर उस पुराने ढेर में आग लगा देती है। लिखा आता है: आइ विल बी चेंज! यह संदेश देने वाली है एक कार कंपनी, एक अंग्रेजी अखबार!
पुरानी चीजों के साथ इस विज्ञापन में जो संबंध बन रहा है उसी तरह का संबंध एक अन्य विज्ञापन में बनाया जाता है कि जिसमें एक आॅनलाइन कंपनी को दिखा कर संदेश दिया जाता है। पुरानी कार हो गई बेच दे, पुरानी गिटार हो गई बेच दे। संदेश है: यहां सब कुछ बिकता है।
पुराने का जलना, हम ही मैं और मैं ही हम या उधर सब कुछ बिकता है कहना कानों में अनेकार्थ वाची हो उठता है।
यह है संदेशों के इशारों से मन का मैनेजमेंट!
यह पुरानी जीन्स और गिटार वाले गाने से आगे की बात है। बिकने में ‘विराग’ कुछ इस तरह पैदा हो रहा है कि पुरानी जीन्स और गिटार अतीत-राग, नॉस्टेल्जिया नहीं देते, कूड़े के ढेर में तजा दिए जाते हैं!
पुराने के पुनरुपयोग की जगह उसे बाहर फेंक देना, जला देना एक क्रूर क्रिया है। तारघर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाना ऐसी ही क्रिया है।

कैसे दुकानदार आपकी जेब से पैसे निकालते हैं

how shopper withdraw money from your pocket


क्या आपने कभी सोचा है कि क्यों सुपर बाज़ार में चॉकलेट उस जगह रखी होती हैं जहां बिल बनते हैं। क्यों साबुन या शक्कर जैसी चीज़ें उस जगह रखी होती हैं जहां पहुंचने के लिए आपको पूरी दुकान से गुज़रना होता है।

या फिर क्यों किशोरों के इस्तेमाल की चीज़ें जैसे टीशर्ट या डीओडोरेंट कुछ बेतरतीब ढंग से रखी होती हैं। इत्र, गहने और मेकप का सामान दुकान में सामने घुसते ही मिलता है।

संयोग नहीं विज्ञान
आज पूरी दुनिया में ग्राहक ज़्यादा चतुर सुजान होता जा रहा है। चारों तरफ फ़ैली आर्थिक अनिश्चितता के चलते लोग सोच समझ कर खर्च करने का प्रयास कर रहे हैं। बड़े दुकानदार 'तू डाल-डाल मैं पात-पात वाला खेल' खेल रहे हैं।

हममें से बहुत लोग यह समझते हैं कि यह सब ललचाने की कोशिश है लेकिन बावजूद इसके हमेशा इन फंदों से बच नहीं पाते।

पैसे बचाने के विशेषज्ञ मार्टिन लुइस कहते हैं "जब खरीददारी की बात होती है तो हम सब के अंदर एक बच्चा होता है। हर दुकानदार का ध्येय यह रहता है कि किस तरह आपको यह अहसास दिलाया जाए कि आप कम पैसों में ज़्यादा मूल्यवान चीज़ें ले रहे हैं। आपका ध्येय उनको पैसा कमाने से रोकना होना चाहिए।"

ब्रिटेन में बीबीसी लैब यूके बिग मनी टेस्ट के एक शोध का कहना है कि आपकी आर्थिक स्थिति को आपके आर्थिक मामलों का ज्ञान, पढ़ाई, आमदनी और सामाजिक परिवेश सब मिला कर भी 'अचानक की गई खरीददारी' जितना प्रभावित नहीं करते।

दुनियाभर में सुपर बाज़ार के महारथियों की कुछ चुनिंदा तरकीबें।

सोची समझी बेतरतीबी

पूरे समय मॉल की शॉपिंग फ़्लोर को साफ़ करने की जगह वहां काम करने वाले एक सोचे समझे तरीके से चीज़ों को बेतरतीब भी करते हैं। ऐसा वो इसलिए करते हैं क्योंकि लोगों को देख कर लगे कि इन चीज़ों को खूब देखा और लिया जा रहा है।

यह तरकीब युवाओं पर, खास तौर से 21 साल से कम उम्र के लोगों पर अधिक कारगर होती है जो मचल कर अचानक खरीददारी करते हैं।

उपभोक्ताआ व्यवहार के विशेषज्ञ फ़िलिप ग्रेव्स कहते हैं कि युवाओं को इस बात से बहुत फ़र्क पड़ता है कि दूसरे क्या खरीद रहे हैं। ग्रेव्स के अनुसार युवा अपने माता पिता से अलग उस तरह के दिखना चाहते हैं जो उन्हें लगता है कि उनसे मिलते जुलते हैं।

इसके वैज्ञानिक कारण हैं। ब्रिटेन की ओपन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मार्क ओ क्रीवी कहते हैं कि "युवाओं के दिमाग का वो हिस्सा जो उन्हें मचल उठने से रोके वो अधिक विकसित नहीं होता है।"

ब्रांड छुपाना
यह एक ऐसे मौके पर किया जाता है जब चारों तरफ आर्थिक संकट व्याप्त हो जैसा की अभी दुनिया के ज़्यादातर हिस्से में है। ऐसे समय में वो लोग जिनकी आमदनी कम नहीं हुई है वो भी संभल कर खर्च करते हैं और सस्ती चीजें खरीदने की कोशिश करते हैं।

उपभोक्ता मामलों के जानकार जोसेफ़ स्टेटन कहते हैं "जब लोगों के पास पैसे कम होते हैं तो वो केवल सस्ता ही नहीं खरीदना चाहते। वो यह भी मानना चाहते कि उनका निर्णय सही है।"

इस तरह की भावना को बल देने के लिए सामान से 'सस्ता' या 'किफायती' जैसे शब्द हटा दिए जाते हैं और उसकी जगह 'उचित मूल्य' और 'समझदारी पूर्ण निर्णय' की बात की जाती है।

जैसी जगह वैसा ऑफ़र
गूगल और फ़ेसबुक पर आप पहले से ही केवल उस तरह के विज्ञापन देखते हैं जो आपकी पसंद से मिलते हैं अब इस डाटा का उपयोग बड़े दुकानदार ख़ास इलाकों और दुकानों पर भी करना आरंभ कर रहे हैं।

वो उस इलाके में प्रचलित चीज़ों के लिए ख़ास ऑफ़र लाते हैं जिससे आप उनका सामान खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं। ऐसे ऑफ़र उनकी हर दुकान और हर शहर में उपलब्ध नहीं होते।

आपकी नज़रों पर निगाह
पश्चिम में कई देशों में यह शुरू हो गया है और भारत में भी यह तकनीक जल्द ही यह आ सकती है। आम तौर पर लोग परफ़्यूम की दुकानों के पास से गुज़रते हैं इत्र का सैंपल देखते हैं निकल जाते हैं।

अब शेल्फ़ के ऊपर लगा एक कैमरा आपकी नज़रों को पढ़ेगा और आपकी आंखें जहां ठिठक रहीं हैं उस ब्रांड के परफ़्यूम के बारे में पास की लगे स्क्रीन पर चित्र दिखाना आरंभ कर देगा।

एक अन्य विशेषज्ञ पॉल डोई कहते हैं "यह उपभोक्ता तो चौंकाता है उसे ललचाता है।" गूची जैसे ब्रांड ऐसा कर रहे हैं।

कई सॉफ्टवेयर आपके बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी चुटकियों में जुटा सकते हैं। मसलन आपकी उम्र, लिंग और आपकी पसंद और उस हिसाब से वो आपको विज्ञापन दिखाते हैं।

आखिर कैसे बचें इस महामारी से

आज चाहे हम कितने भी आधुनिक हो गए हो या हम उन्नति के रथ पर सवार हो लेकिन सच तो यह है कि आज भी कई ऐसी चीजें हैं जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं और इन्हीं में से एक है कैंसर. आज कैंसर को लाइलाज कहना तो गलत है लेकिन कैंसर से होने वाला नुकसान कई बार आम आदमी की जिंदगी खत्म कर देता है. हर वर्ष 04 फरवरी को विश्व कैंसर दिवस मनाया जाता है.



World Cancer Day: विश्व कैंसर दिवस

एक अनुमान के मुताबिक 2005 में 7.6 लाख लोग कैंसर से मौत के आगोश में समा गए थे. इतनी बड़ी संख्या में लोगों के मरने से और विश्व स्तर पर इस बीमारी के फैलने से सब चिंतित हैं. इसी कारण विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हर साल 4 फरवरी को विश्व कैंसर दिवस की तरह मनाने का निर्णय लिया ताकि इस भयानक बीमारी के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाई जा सके.



विश्व कैंसर दिवस की शुरुआत विश्व में कैंसर के प्रति जागरुकता और इसके बचाव के तरीकों के बारें में अधिक से अधिक लोगों को परिचित कराने के लिए हुई थी. साल 2006 में पहली बार विश्व कैंसर दिवस मनाया गया था.


What is Cancer: कैंसर

कैंसर आज दुनिया में एक ऐसी बीमारी बन चुकी है जिसका नाम सुनते ही कई लोगों के पैरों तले जमीन खिसक जाती है.  जानकार मानते हैं कि कैंसर लाइलाज नहीं है बस जरूरत है इसका सही समय पर पता चलने की और सही इलाज की. एक आम आदमी के लिए यह जरूर एक लाइलाज बीमारी हो सकती है लेकिन इसका महंगा इलाज इसे अमीर लोगों के लिए साध्य बनाता है. यह समाज के लिए बहुत बुरा है कि कैंसर जैसे रोग भी अमीर और गरीब के बीच अंतर देखते हैं.


कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी पूरे विश्व में समस्या का विषय है और इस बीमारी का इलाज पता करने की जिम्मेदारी न केवल डॉक्टरों व वैज्ञानिकों की है बल्कि हममें से हर किसी की है.


आइए आज हम कैंसर के बारें में जानें और अन्य लोगों को भी इस भयानक बीमारी के बारें में जागरुक बनाएं.





Causes of Cancer: कैंसर के लक्षण

  • आमतौर पर शरीर के किसी भी भाग पर ऊतकों में असामान्य रूप से गांठ बनना या उभार आना कैंसर हो सकता है.
  • कोशिकाओं का असामान्य तौर पर वृद्धि करना और अनियंत्रित रूप से विभाजित होने से कैंसर होता है.
  • कैंसर के किसी भी लक्षण के दिखने पर उसकी जांच तुरंत करवाए जाने की ज़रूरत है और कैंसर के लक्षणों को भी आसानी से पहचाना जा सकता है.



Cancer Causes and Risk Factors: कैंसर का इलाज

कैंसर का पता बायोप्सी नामक टेस्ट से चलता है. इसके बाद कैंसर का पता लगाने के बाद जो इलाज किया जाता है, उसमें कीमोथेरेपी प्रमुख है. कीमोथेरेपी कैंसर के असर को कम करने के लिए दी जाती है. उदाहरण के लिए अगर कैंसर चौथी स्टेज पर हो तो यह थैरेपी इसे दूसरी स्टेज पर ले आती है. यह हर तरह के कैंसर में नहीं दी जा सकती. इसी तरह रेडियोथेरेपी शरीर में कैंसर के ऊतकों को कम करने के लिए दी जाती है.



डॉक्टर मानते हैं कि कैंसर ठीक हो सकता है बशर्ते इसका डटकर सामना किया जाए. हमें इससे डरना नहीं चाहिए. कैंसर पर विजय हासिल करने में इन सुझावों पर ध्यान दें:

*  जांच होने के बाद कैंसर के उपचार का पहला अवसर ही सर्वश्रेष्ठ अवसर है. इस अवसर को गंवाना जानलेवा हो सकता है.

* निकट के कैंसर संस्थान का ही उपचार के लिए चयन करें, ताकि आप लम्बे इलाज के लिए आवश्यकतानुसार समय-समय पर अपने विशेषज्ञ के पास पहुंच सकें.

* कैंसर विशेषज्ञ की ही बातों पर अमल करें. गैर-जानकार व्यक्ति की सुनी-सुनाई बातों को सुन आप भ्रमित हो सकते हैं.

* बॉयोप्सी जांच से कैंसर फैलता नहीं है. इस गलत धारणा के कारण बहुत से लोग अपना उपचार समय से न कराकर मर्ज बढ़ा लेते हैं. बॉयोप्सी से ही कैंसर के प्रकार व संभावित उपचार का निर्धारण होता है.

* कैंसर विशेषज्ञ से रोग की वार्षिक जांच कराते रहने से रोग का प्रारंभिक अवस्था में पता चल जाता है. प्रारंभिक अवस्था में अधिकांश कैंसर पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं, बशर्ते आप पूरी तरह से मन लगाकर उपचार में जुट जाएं.





कैंसर की रोकथाम के कुछ उपाय:

* सिगरेट व शराब का सेवन कम करें इनसे फेफड़ों, सिर व गले के कैंसर का खतरा हो सकता है.

* ज्यादा तला भुना व वसा युक्त भोजन कम खाएं, इससे ब्रेस्ट व प्रोस्ट्रेट कैंसर का खतरा होता है.

* स्वस्थ रहने के लिए रोज व्यायाम करें.

* फेफड़ो के कैंसर से बचने के लिए किसी भी प्रकार के केमिकल्स जैसे फंगीसाइड, इंसेक्टिसाइड, पेन्ट, क्लीनर से दूर रहें.

* अपने जीवनसाथी के प्रति वफादार रहें.

* गर्मियों के मौसम में सूरज की किरणों के संपर्क में आने से बचें, ऐसा करके आप स्किन कैंसर से बच सकते हैं.

* अपनी सुरक्षा के लिए ब्रेस्ट व प्रोस्ट्रेट कैंसर से बचने के लिए कुछ रेगुलर चेकअप कराते रहें.




कैंसर से चिकित्सा के कुछ उपाय:

* रेडिएशन्स की मदद से कैंसर को ठीक किया जा सकता है. एक नई चिकित्सा पद्धति के अनुसार अब रेडिएशन्स की मदद से चिकित्सा के दौरान दूसरे शरीर के भागों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.

* कीमोथेरेपी की मदद से भी कैंसर का इलाज संभव है.


विश्व को कैंसर मुक्त करने के लिए आप भी कदम बढ़ाएं और खुद तथा अपने सगे सबंधियों को तंबाकू, सिगरेट, शराब आदि से दूर रहने की सलाह दीजिए.

विडंबना या नियति: नारी की समानता पर छलनी है कानून

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चौंसठ साल के आजाद हिंदुस्तान ने भारतीय महिलाओं को विश्व पटल पर छाते देखा, अंतरिक्ष पर जाते देखा पर अपनी ही भूमि पर उन्हें बराबरी का हक नहीं दिला सका। समानता के लिए सदियों से चली आ रही आम महिला की जंग अभी खत्म नहीं हुई। शक्ति और धैर्य का पर्याय मानी जाने वाली महिला को समानता दिलाने में पुराने कानून असमर्थ हैं। इस छलनी में तमाम छेद हैं पर देखने वालों की नजर में सब ठीक है।

21वीं सदी में भी पति के जारकर्म (अनैतिक संबंध) के खिलाफ पत्नी आपराधिक मामला नहीं दर्ज करा सकती। मसला चाहे तलाक लेने पर पति की संपत्ति पर हक का हो या सड़क पर पीछा करने वाले के खिलाफ कार्रवाई का, महिलाओं के बचाव में कानून फिलहाल निर्वात में है। इसे दुर्भाग्य कहें या बदलाव की बयार की कछुआ चाल। स्वतंत्रता के 64 साल बाद भी देश गर्व से नहीं कह सकता कि यहां महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं।

1. सड़क दुर्घटना में घरेलू महिला (हाउस वाइफ) को कम मुआवजा दिया जाता है। मोटर वाहन अधिनियम की धारा 6 में आय के आधार पर मुआवजा तय है। इस धारा में दुर्घटना के पीड़ितों को दो वर्ग में बांटा गया है। पहला न कमाने वाला व्यक्ति, दूसरा पत्नी। इसमें घरेलू महिला के दुर्घटनाग्रस्त होने या मौत पर पति की आय के एक तिहाई हिस्से को मुआवजे का आधार बनाया जाता है। यह वर्गीकरण घरेलू महिलाओं के महत्व का समुचित मूल्यांकन नहीं है। घर के सभी कामकाज महिलाओं के हवाले होते हैं। ऐसे में उनकी उपयोगिता का मूल्य स्पष्ट है।

2. जारकर्म (अडल्ट्री) कानून में पति को अपनी पत्नी के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत कार्रवाई का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन पत्नी को पति के साथ संबंध रखने वाली महिला के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। यदि पति के साथ कोई महिला सहमति से संबंध रखती है तो पत्नी कुछ नहीं कर सकती। यहां पर कानूनी तौर पर पत्नी यानी महिला के साथ समान व्यवहार नहीं किया गया है। इस कानून पर कई सालों से बहस जारी है। लेकिन अब तक इसमें संशोधन करने पर विचार तक नहीं किया गया है।

3. सेना के कानून में सेवाएं देने के मामले में भी महिलाओं को समान अधिकार नहीं है। उनसे सिर्फ अस्थायी कमीशन के तहत सेवाएं ली जाती रही हैं। इस मुद्दे पर हाईकोर्ट महिलाओं के पक्ष में फैसला दे चुका है और अब मामला सर्वोच्च अदालत में है। सेना अधिनियम-1950 में जारी इस असमानता के खिलाफ अस्थायी कमीशन पर नौकरी कर रही महिलाएं मोर्चा संभाले हैं। लेकिन महिलाओं के समान अधिकार का हल्ला मचाने वाली सरकार भी सेना के इस तर्क से सहमत है कि नाजुक काया को जंग के मैदान पर भेजना मुसीबत को दावत देना होगा।

4. बाबुल की गलियां छोड़ पति के साथ घर बनाने वाली महिला को समान अधिकार नहीं है। पति यदि तलाक लेता है तो पत्नी का उसकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रहता। उसे गुजारे भत्ते के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। जहां एकमुश्त या मासिक भत्ते की राशि तय की जाती है। पति बेरोजगार है तो पत्नी के लिए बड़ी परेशानी है। वह उससे कुछ नहीं ले सकती। भले ही पति के पास संपत्ति हो और निजी तौर पर वह उसका उपयोग कर रहा हो। कानूनविदों के बीच पति की संपत्ति पर पत्नी को समान अधिकार प्रदान करने की बहस कई बार छिड़ी है। लेकिन अब तक बेनतीजा।

5. कार्यालयों में महिलाओं के यौन उत्पीड़न पर सरकार ने सर्वोच्च अदालत की ओर से 1997 में फैसला जारी करने के बावजूद इस पर कानून बनाने की तकलीफ नहीं की। पूरे देश में फैसले में अदालत की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों का अनुपालन कराने में भी सरकार अब तक पूरी तरह से सक्षम नहीं है। क्योंकि घर चलाने के लिए बाहर निकलने वाली महिलाओं को इसकी शिकायत करने पर भी तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। उन पहलुओं पर देश की सत्ता चलाने वालों ने गौर करना भी उचित नहीं समझा है। तमाम सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि भारत में काम करने वाली महिलाओं को कार्यालयों में आए-दिन यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयंती विशेष

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक, आजाद हिन्द फौज के संस्थापक और जय हिन्द का नारा देने वाले सुभाष चन्द्र बोस जी की आज जयंती है. 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक नामक नगरी में सुभाष चन्द्र बोस का जन्म हुआ था. अपनी विशिष्टता तथा अपने व्यक्तित्व एवं उपलब्धियों की वजह से सुभाष चन्द्र बोस भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं.


netaji-subhash-chandra-boseस्वाधीनता संग्राम के अन्तिम पच्चीस वर्षों के दौरान उनकी भूमिका एक सामाजिक क्रांतिकारी की रही और वे एक अद्वितीय राजनीतिक योद्धा के रूप में उभर के सामने आए. सुभाष चन्द्र बोस का जन्म उस समय हुआ जब भारत में अहिंसा और असहयोग आन्दोलन अपनी प्रारम्भिक अवस्था में थे. इन आंदोलनों से प्रभावित होकर उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. पेशे से बाल चिकित्सक डॉ बोस ने नेताजी की राजनीतिक और वैचारिक विरासत के संरक्षण के लिए नेताजी रिसर्च ब्यूरो की स्थापना की. नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि अगर आजादी के समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता.


शुरुआत में तो नेताजी की देशसेवा करने की बहुत मंशा थी पर अपने परिवार की वजह से उन्होंने विदेश जाना स्वीकार किया. पिता के आदेश का पालन करते हुए वे 15 सितम्बर 1919 को लंदन गए और वहां कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन करने लगे. वहां से उन्होंने आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की और योग्यता सूची में चौथा स्थान प्राप्त किया. पर देश की सेवा करने का मन बना चुके नेताजी ने आई.सी.एस. से त्याग पत्र दे दिया.


भारत आकर वे देशबंधु चितरंजन दास के सम्पर्क में आए और उन्होंने उनको अपना गुरु मान लिया और कूद पड़े देश को आजाद कराने. चितरंजन दास के साथ उन्होंने कई अहम कार्य किए जिनकी चर्चा इतिहास का एक अहम हिस्सा बन चुकी है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सुभाष चन्द्र बोस की सराहना हर तरफ हुई. देखते ही देखते वह एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए. पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडेंस लीग शुरू की.


लेकिन बोस के गर्म और तीखे तेवरों को कांग्रेस का नरम व्यवहार ज्यादा पसंद नहीं आया. उन्होंने 29 अप्रैल 1939 को कलकत्ता में हुई कांग्रेस की बैठक में अपना त्याग पत्र दे दिया और 3 मई 1939 को सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता में फॉरवर्ड ब्लाक अर्थात अग्रगामी दल की स्थापना की. सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्व प्रांरभ हुआ. ब्रिटिश सरकार ने सुभाष के युद्ध विरोधी आन्दोलन से भयभीत होकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. सन् 1940 में सुभाष को अंग्रेज सरकार ने उनके घर पर ही नजरबंद कर रखा था. नेताजी अदम्य साहस और सूझबूझ का परिचय देते हुए सबको छकाते हुए घर से भाग निकले.


नेताजी ने एक मुसलमान मौलवी का वेष बनाकर पेशावर अफगानिस्तान होते हुए बर्लिग तक का सफर तय किया. बर्लिन में जर्मनी के तत्कालीन तानाशाह हिटलर से मुलाकात की और भारत को स्वतंत्र कराने के लिए जर्मनी व जापान से सहायता मांगी. जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की. इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे. पर जर्मनी भारत से बहुत दूर था. इसलिए 3 जून 1943 को उन्होंने पनडुब्बी से जापान के लिए प्रस्थान किया. पूर्व एशिया और जापान पहुंच कर उन्होंने आजाद हिन्द फौज का विस्तार करना शुरु किया. पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थानीय भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और आर्थिक मदद करने का आह्वान किया. उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा.


द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया. अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया. दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंडमान और निकोबार द्वीप जीत लिए पर अंत में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा.


6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया. इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गांधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद मांगा. इस प्रकार, नेताजी ने गांधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया.


द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था. उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था. 18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे. इस सफर के दौरान वे लापता हो गए. इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिए. 23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी कि 18 अगस्त के दिन नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी.


फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयीं. स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार आयोग गठित किया. दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गए थे. मगर समय-समय पर उनकी मौत को लेकर बहुत सी आंशकाएं जताई जाती रही हैं. भारत के सबसे बड़े स्वतंत्रता सेनानी और इतने बड़े नायक की मृत्यु के बारे में आज तक रहस्य बना हुआ है जो देश की सरकार के लिए एक शर्म की बात है.


नेताजी ने उग्रधारा और क्रांतिकारी स्वभाव में लड़ते हुए देश को आजाद कराने का सपना देखा था. अगर उन्हें भारतीय नेताओं का भी भरपूर सहयोग मिला होता तो देश की तस्वीर यकीकन आज कुछ अलग होती. नेताजी सुभाष चन्द बोस को हमारी तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि.

भविष्य के नेता हैं विवेकानंद

भारतीय समाज, विशेषकर युवा पीढ़ी आज एक बहुत बड़े भटकाव और निराशा से गुजर रही है। एक ओर देश का अत्यंत समृद्ध तबका और धनी मध्यमवर्ग है जो अपनी लोक व क्षेत्रीय संस्कृति को भुलाकर, उपभोक्तावादी औपनिवेशिक संस्कृति के खुमार में डूबकर और समाज के सरोकारों से खुद को काटकर एक मूल्य विहीन जीवन शैली को अपनाने में गर्व महसूस करता है। दूसरी ओर एक बहुत बड़ा वंचितों का तबका है, जिसमें दलित, आदिवासी, महिलाएं, छोटे किसान और मजदूर आजादी के 65 वर्ष बाद भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं और न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकारों से भी वंचित है। स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौर में भारतीय युवाओं में मानवीय मूल्यों पर आधारित सामाजिक विकास और राष्ट्रवाद की भावना का संचार कर इस देश को जो दिशा दी थी, वह आज के समय में भी इस देश और युवाओं के लिए उतनी ही प्रासंगिक और जरूरी है।

भारतीय समाज में जातिवाद और पुरुष प्रधान सामंती सोच के कारण महिलाओं की गैर बराबरी और शोषण हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियां है। इनका हल निकाले बिना मानवता के उत्थान अथवा धार्मिक-सामाजिक विकास के किसी सिद्धांत पर चर्चा करना बेमानी होगा। जाति व्यवस्था के बारे में स्वामी विवेकानंद का कहना था कि यह एक दोषपूर्ण व्यवस्था है। हमारे देश में अंधविश्वास और बुराइयां बहुत हैं। यह जाति व्यवस्था ही है जिसके कारण आज भी करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। 'जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था या नस्ल पर आधारित भेदभाव वास्तव में प्रकृति के श्रेष्ठतम बौद्धिक और मानसिक क्षमताओं के रूप में हमारे मनुष्य होने की पहचान पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। यह समाज एवं राष्ट्र के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभा और क्षमता की तमाम उपलब्धियों के लिखे जा रहे सुनहरे अध्यायों के ऊपर लिपी हुई एक कालिख है, जिसे हम देखना नहीं चाहते।'

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में 'इस देश में महिला व पुरुष के बीच इतना अंतर क्यों है, यह समझना बहुत मुश्किल है। वेदों का यह स्पष्ट ऐलान है कि सभी में एक ही और एक जैसी ही चेतना मौजूद है। आप हमेशा महिलाओं की आलोचना करते हैं पर आपने उनके उत्थान के लिए क्या किया है, सिवाय उन्हें कड़े नियमों में बांधने के? पुरुषों ने औरतों को बस बच्चा पैदा करने की मशीन में बदल दिया है। महिला को ऊपर उठाए बिना आपके खुद के आगे बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं हो सकता।'
भारत में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने में स्वामी विवेकानंद का बहुत बड़ा योगदान है।जिस समय भारत में महिला शिक्षा को धर्माचार्यों द्वारा सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था,उस समय उन्होंने इस विषय में कहा था- 'कौन से शास्त्र है जिनमें आपको लिखा मिलेगा किनारी ज्ञान एवं भक्ति के लायक नहीं हैपतन के दौर में जब धर्माचार्यों ने दूसरी जातियों को वेदपढ़ने के लिए अक्षम घोषित कियातभी उन्होंने महिलाओं को भी उनके अधिकारों से वंचित करदिया। नहीं तो आप पाएंगे वैदिक और उपनिषद काल में मैत्रेयी एवं गार्गी जैसी स्त्रियों नेऋषि-मुनियों के बराबर स्थान प्राप्त किया था। एक हजार ब्राह्मणों की उपस्थिति मेंजो वेदों के बड़ेविद्वान थेगार्गी ने बड़े साहस से याज्ञवल्क्य को ब्रह्म ज्ञान के ऊपर शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी।स्त्रियां यदि उस समय ज्ञान की अधिकारी थीं तो आज के समय में ये अधिकार उन्हें क्यों मिलें?'

भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष  के प्रेम  यौन संबंधों की प्रकृति एवं उसका आधार मुख्य रूप सेसामंती है। हम सभी इन संबंधों में विवाह संस्था की घटती जरूरत पर चिंता प्रकट करते हैपरभारतीय समाज में परिवार  विवाह संस्था नारी गुलामी को सामाजिक स्वीकृति देने वालीव्यवस्था के रूप में ही मौजूद हैइस पर हम चुप हैं। सामंती संस्कृति और भूमंडलीकरण के बादउपजी औपनिवेशिक संस्कृतिदोनों में ही स्त्री की संपूर्ण ऊर्जाविवेकघरेलू  अन्य श्रम मेंउसके योगदान और उसकी आकाश छूती महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं को नजरअंदाज कर उसकेव्यक्तित्व को पुरुष द्वारा परिभाषित सौंदर्य मानकों तक सीमित कर दिया गया है। पर इस तथ्य सेभी इंकार नहीं किया जा सकता कि भूमंडलीकरण ने महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैदरखने की दकियानूसी सोच के खिलाफ विद्रोह की ज़मीन भी तैयार की है। भारत को एकप्रगतिशील समाज बनाने के लिए इस विद्रोह को हमें एक सकारात्मक दिशा देनी होगी।

एक बार भयंकर अकाल पड़ा। स्वामी विवेकानंद का हृदय पीडि़तों की सेवा के लिए भावविभोर होउठा। वे दिन-रात सेवा कार्य के लिए तत्पर रहते। उन दिनों कोई भी साधु-संत या पंडित धर्म यादर्शन पर चर्चा के लिए आते तो सारी चर्चा को बंद करके वे अकाल पीडि़तों की सेवा को हीबातचीत का मुख्य मुद्दा बना देते थे। उसी समय पंजाब प्रांत से 'हितवादीके संपादक पंडितसखाराम गणेश देऊस्कर अपने साथियों के साथ स्वामी जी से मिलने आए। बातचीत के दौरानउन्होंने पूरा समय इस पर केंद्रित कर दिया कि पंडित देऊस्कर के इलाके में अकाल पीडि़तों कोकैसे ज्यादा से ज्यादा भोजन उपलब्ध करवाया जाए। जाने से पहले पंडित सखाराम जी नेनाराजगी जताते हुए कहा कि हमें आपसे धर्म के ऊपर महत्वपूर्ण प्रवचनों और उपदेशों की उम्मीदथी पर हमारा समय व्यर्थ की बातों में बर्बाद हो गया। यह सुनकर स्वामी विवेकानंद काफी गंभीरहो गए और उन्होंने जवाब दिया- 'श्रीमानजब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा हैमेरापहला धर्म उसके लिए भोजन की व्यवस्था करना है।उनका जवाब सुनकर तीनों आगंतुक स्तब्धरह गए। स्वामी जी की मृत्यु के बाद पंडित सखाराम ने उस घटना को याद करते हुए कहा था- 'उनके उन शब्दों ने मेरी सोच को हमेशा के लिए बदल के रख दिया और मुझे अहसास दिलायाकि सच्ची देशभक्ति क्या होती है।'

श्रम पर आधारित काम को हेय दृष्टि से देखने और बिना मेहनत के रातोंरात पूंजीपति बनने काजुगाड़ करने की एक और संस्कृति इधर देश में तेजी से फैल रही है और इसकी गिरफ्त में युवावर्ग सबसे ज्यादा है। मीडिया और मनोरंजन उद्योग से मेहनतकश आम आदमीउसके मुद्दे औरपरिवेश आज पूरी तरह गायब हो चुका है। कुछ राजनीतिक हलकों द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति केलिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा उछाला जा रहा हैजिसका आधार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है।आर्थिक विषमता और जातिवाद का हल खोजे बिना जनता में प्रगतिशील राष्ट्रवाद की भावना कासंचार नहीं किया जा सकता। जब भी यह चुनौती हम अपने सामने रखेंगेअपने संघर्ष का आदिप्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद को ही पाएंगे।