सरकारी आदेश के तहत तार को जब मौत के घाट उतारा गया तो तार का मातम मनाने वालों ने इसे भी समारोह बना डाला।
तार क्रांति ऐतिहासिक थी। तार आया तो प्रिंट मीडिया में खबर की रफ्तार बढ़ गई। सब अंग्रेजों की माया। उनका कब्जा। उनका सब्जा!
अपने शासन को मजबूत करने के लिए तार लाया गया। अगर तार न होता तो अंग्रेज अठारह सौ सत्तावन की क्रांति को न रोक पाते। इतिहास बताता है कि जब दिल्ली में क्रांतिकारियों का राज कायम हो गया तब लाल किले के पीछे-पीछे जाने वाले तारों के जरिए कलकत्ते तक एक अंग्रेज तार बाबू ने ही खबर पहुंचाई कि दिल्ली हाथ से निकल गई है, तुरत फौज भेजिए!
क्रांतिकारी सिपाहियों को यह पता नहीं था कि तार के जरिए भी अंग्रेज अपनी फौज मंगा कर विद्रोह को कुचल सकते हैं। यही हुआ। सिपाहियों को तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ाया गया। दिल्ली पर अंग्रेज काबिज हो गए। इतिहास फिर फिरंगी के हवाले हो गया।
इतिहास की यह पलट तार ने की। उसकी तकनीक ने की। रेललाइन के साथ-साथ जाने वाले तार देश भर में फैल गए। भारत पर एकछत्र शासन लाने में तारघरों ने बड़ी मदद की।
तब तक भारतीय लोगों ने तार के जादू को समझ लिया था। एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए तार के संदेशों का उपयोग किया था। आजादी की लड़ाई में तार का भरपूर उपयोग होने लगा। इस तरह जो तकनीक 1857 में दमन के लिए इस्तेमाल हुई वही आजादी की लड़ाई के लिए कारगर होने लगी। ‘भारत छोड़ो’ के दौरान आजादी के लिए लड़ने वालों ने कई जगह तार के खंभे इसीलिए उखाड़ दिए ताकि अंग्रेज इकट््ठे होकर दमन न कर सकें। संचार में बयालीस तक बहुत कुछ बदल गया था!
उसके बाद तार जनता के लिए दुख-सुख का तुरंत समाचार देने वाला माध्यम बन गया। उसका ज्यादा इस्तेमाल ज्यादातर फौज में, व्यापार में, राजनीति में और पत्रकारिता में होने लगा। जनता के बीच वह नौकरी की या शोक की खबर देने वाला माना जाने लगा। तार माध्यम से आगे बढ़ कर ‘संदेश’ बन गया। आते ही सबको सांप सूंघ जाता। सिपाहियों के मरने की खबर तार से आती। सर्वत्र शोक व्याप्त कर देती। तार से भावनात्मक संबंध ठहर गया। टेलीप्रिंटर आया और अखबारों को रिपोर्ताज मिलने लगे। खबरें ज्यादा ताजा होने लगीं।
सब चलता रहता अगर बेतार क्रांति और आगे वाली उपग्रह क्रांति न हुई होती, उससे जुड़ी ताबड़तोड़ टीवी, मोबाइल और इंटरनेट क्रांति एक के बाद एक न हुई होती।
और जैसा कि होता है, तकनीकी जिस गति से पिछले पचास साल में बदली है, उतनी तेजी से कुछ नहीं बदला। जितनी तेजी से तकनीकी बदली, उतनी ही तेजी से समाज का ढांचा, समाज का संचार और व्यवहार बदला।
टीवी आया तो पहली गाज सिनेमाघरों पर गिरी, नाटकोंपर गिरी। उसने इन दो विधाओं को आत्मसात कर लिया। किताब पर गिरी, उसे भी आत्मसात कर लिया। दुनिया देखते-देखते ग्लोबल विलेज बन गई।
इसके आगे के काम इंटरनेट और मोबाइल ने पूरे किए। सबको तुरता समय में सबसे जोड़ दिया। कनेक्टिविटी इतनी तेज और चपल हो गई कि काल का बंधन टूट गया।
संचार की नई तकनीकों के लगातार बदलाव का सबसे ज्यादा असर डाक और तार पर ही पड़ा। इंटरनेट ने, मोबाइल संदेशों ने चिट््ठी-पत्री बेकार कर दी। उदारीकरण ने डाकिए की जगह कूरियर को दे दी। मनीआॅर्डर की जगह टेली-मनीआॅर्डर ने ले ली। अब तो डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना ने इन सबको पीछे छोड़ दिया।
जिस दिन मोबाइल आया उसी दिन तारघर की सीमा समझ में आ गई थी। मोबाइल ने लोगों के बीच संवाद को इतना सरल कर दिया कि तारघर जाने की जगह एक एसएमएस ही काफी रहने लगा। तार कम होने लगे, मोबाइल बढ़ने लगे। मोबाइल के आगे तार सर्वत्र हारा, यहां भी हारा।
मोबाइल ने रील वाले कैमरे तक को बंद कर दिया। डिजिटल क्रांति ने मोबाइल रील वाले पुराने ढंग के मोबाइल कैमरे तक को बेकार कर दिया। अब हर आदमी कैमरामैन है, हर आदमी संपादक है, हर आदमी खरिया है कमाल है।
जिस पीढ़ी के हाथों मेंमोबाइल है- जिसमें कैमरा है, इंटरनेट है, रेडियो है- उसी ने तार के विदा होने पर सबसे ज्यादा नाटकीय दृश्य पैदा किए।
जिस दिन तार बंद किया गया उस दिन का नजारा मजेदार रहा। जिस युवा पीढ़ी के लोग कभी तारघर तक नहीं गए, सैकड़ों की संख्या में तारघर पहुंचे और चार रुपए के एक शब्द के रेट से राष्ट्रपति, राहुल गांधी और मनमोहन जी को तार दिए। कुछ ने तारघरों के आगे खडेÞ होकर अपने-अपने मोबाइल से एक दूसरे के फोटो खींचे। इस तरह से वे तार के ‘इतिहास’ में शामिल हुए।
फुकुयामा के ‘इतिहास का अंत’ की सिद्धांतिकी का मर्म इस घटना से समझा जा सकता है। जरा देखें: जिस मोबाइल ने तार की विदाई सुनिश्चित की, वह युवा पीढ़ी का जबर्दस्त संचार माध्यम है। मोबाइल क्रांति ने तार को पहले ही बेकार कर दिया था। जो मोबाइल पीढ़ी तार के लिए शोक मनाने आई वह मोबाइल सहित आई। वह चाहती तो न आती लेकिन तार के जाते हुए क्षण की वह गवाह होना चाहती थी। तार उसके लिए अजनबी था।
तार क्रांति ऐतिहासिक थी। तार आया तो प्रिंट मीडिया में खबर की रफ्तार बढ़ गई। सब अंग्रेजों की माया। उनका कब्जा। उनका सब्जा!
अपने शासन को मजबूत करने के लिए तार लाया गया। अगर तार न होता तो अंग्रेज अठारह सौ सत्तावन की क्रांति को न रोक पाते। इतिहास बताता है कि जब दिल्ली में क्रांतिकारियों का राज कायम हो गया तब लाल किले के पीछे-पीछे जाने वाले तारों के जरिए कलकत्ते तक एक अंग्रेज तार बाबू ने ही खबर पहुंचाई कि दिल्ली हाथ से निकल गई है, तुरत फौज भेजिए!
क्रांतिकारी सिपाहियों को यह पता नहीं था कि तार के जरिए भी अंग्रेज अपनी फौज मंगा कर विद्रोह को कुचल सकते हैं। यही हुआ। सिपाहियों को तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ाया गया। दिल्ली पर अंग्रेज काबिज हो गए। इतिहास फिर फिरंगी के हवाले हो गया।
इतिहास की यह पलट तार ने की। उसकी तकनीक ने की। रेललाइन के साथ-साथ जाने वाले तार देश भर में फैल गए। भारत पर एकछत्र शासन लाने में तारघरों ने बड़ी मदद की।
तब तक भारतीय लोगों ने तार के जादू को समझ लिया था। एओ ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना के लिए तार के संदेशों का उपयोग किया था। आजादी की लड़ाई में तार का भरपूर उपयोग होने लगा। इस तरह जो तकनीक 1857 में दमन के लिए इस्तेमाल हुई वही आजादी की लड़ाई के लिए कारगर होने लगी। ‘भारत छोड़ो’ के दौरान आजादी के लिए लड़ने वालों ने कई जगह तार के खंभे इसीलिए उखाड़ दिए ताकि अंग्रेज इकट््ठे होकर दमन न कर सकें। संचार में बयालीस तक बहुत कुछ बदल गया था!
उसके बाद तार जनता के लिए दुख-सुख का तुरंत समाचार देने वाला माध्यम बन गया। उसका ज्यादा इस्तेमाल ज्यादातर फौज में, व्यापार में, राजनीति में और पत्रकारिता में होने लगा। जनता के बीच वह नौकरी की या शोक की खबर देने वाला माना जाने लगा। तार माध्यम से आगे बढ़ कर ‘संदेश’ बन गया। आते ही सबको सांप सूंघ जाता। सिपाहियों के मरने की खबर तार से आती। सर्वत्र शोक व्याप्त कर देती। तार से भावनात्मक संबंध ठहर गया। टेलीप्रिंटर आया और अखबारों को रिपोर्ताज मिलने लगे। खबरें ज्यादा ताजा होने लगीं।
सब चलता रहता अगर बेतार क्रांति और आगे वाली उपग्रह क्रांति न हुई होती, उससे जुड़ी ताबड़तोड़ टीवी, मोबाइल और इंटरनेट क्रांति एक के बाद एक न हुई होती।
और जैसा कि होता है, तकनीकी जिस गति से पिछले पचास साल में बदली है, उतनी तेजी से कुछ नहीं बदला। जितनी तेजी से तकनीकी बदली, उतनी ही तेजी से समाज का ढांचा, समाज का संचार और व्यवहार बदला।
टीवी आया तो पहली गाज सिनेमाघरों पर गिरी, नाटकोंपर गिरी। उसने इन दो विधाओं को आत्मसात कर लिया। किताब पर गिरी, उसे भी आत्मसात कर लिया। दुनिया देखते-देखते ग्लोबल विलेज बन गई।
इसके आगे के काम इंटरनेट और मोबाइल ने पूरे किए। सबको तुरता समय में सबसे जोड़ दिया। कनेक्टिविटी इतनी तेज और चपल हो गई कि काल का बंधन टूट गया।
संचार की नई तकनीकों के लगातार बदलाव का सबसे ज्यादा असर डाक और तार पर ही पड़ा। इंटरनेट ने, मोबाइल संदेशों ने चिट््ठी-पत्री बेकार कर दी। उदारीकरण ने डाकिए की जगह कूरियर को दे दी। मनीआॅर्डर की जगह टेली-मनीआॅर्डर ने ले ली। अब तो डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना ने इन सबको पीछे छोड़ दिया।
जिस दिन मोबाइल आया उसी दिन तारघर की सीमा समझ में आ गई थी। मोबाइल ने लोगों के बीच संवाद को इतना सरल कर दिया कि तारघर जाने की जगह एक एसएमएस ही काफी रहने लगा। तार कम होने लगे, मोबाइल बढ़ने लगे। मोबाइल के आगे तार सर्वत्र हारा, यहां भी हारा।
मोबाइल ने रील वाले कैमरे तक को बंद कर दिया। डिजिटल क्रांति ने मोबाइल रील वाले पुराने ढंग के मोबाइल कैमरे तक को बेकार कर दिया। अब हर आदमी कैमरामैन है, हर आदमी संपादक है, हर आदमी खरिया है कमाल है।
जिस पीढ़ी के हाथों मेंमोबाइल है- जिसमें कैमरा है, इंटरनेट है, रेडियो है- उसी ने तार के विदा होने पर सबसे ज्यादा नाटकीय दृश्य पैदा किए।
जिस दिन तार बंद किया गया उस दिन का नजारा मजेदार रहा। जिस युवा पीढ़ी के लोग कभी तारघर तक नहीं गए, सैकड़ों की संख्या में तारघर पहुंचे और चार रुपए के एक शब्द के रेट से राष्ट्रपति, राहुल गांधी और मनमोहन जी को तार दिए। कुछ ने तारघरों के आगे खडेÞ होकर अपने-अपने मोबाइल से एक दूसरे के फोटो खींचे। इस तरह से वे तार के ‘इतिहास’ में शामिल हुए।
फुकुयामा के ‘इतिहास का अंत’ की सिद्धांतिकी का मर्म इस घटना से समझा जा सकता है। जरा देखें: जिस मोबाइल ने तार की विदाई सुनिश्चित की, वह युवा पीढ़ी का जबर्दस्त संचार माध्यम है। मोबाइल क्रांति ने तार को पहले ही बेकार कर दिया था। जो मोबाइल पीढ़ी तार के लिए शोक मनाने आई वह मोबाइल सहित आई। वह चाहती तो न आती लेकिन तार के जाते हुए क्षण की वह गवाह होना चाहती थी। तार उसके लिए अजनबी था।
उसकी चारों तरफ की दुनिया उसके लिए मोबाइल में, इंटरनेट में है। उसका सकल ज्ञान उसके विकीपीडिया में है। उसकी दुनिया उसके दिमाग में न होकर उसके यंत्र में है। दिमाग का भी वह न्यूनतम और इकहरा उपयोग करता है। प्रसन्न होकर तार को विदाई देना-फोटो खिंचवाना इतिहास बनाना है।
तात्कालिकता इतनी आवेगमय है कि हर क्षण दर्शनशास्त्र में बाद में पुराना पड़ता है, इस पीढ़ी के लिए पहले व्यतीत हो जाता है। वह उस व्यतीत को अपने में व्यापा नहीं मानती। वह उससे अलग कहीं और बीता हुआ होता है। यह उसकी ‘टाइमिंग’ है।
इस तात्कालिकता में पुराने के प्रति, अतीत के प्रति, व्यतीत के प्रति ‘लगावट’ नहीं है। वह ‘तुरंता’ (इस्टेंट) है। ठहराव रहित वह ‘दिग्भ्रम’ में रहता है। उसकी मानसिकता का पक्का नक्शा किसी के पास नहीं है। उसके मन की अवस्था पर कोई नोट नहीं लिखा गया। न कविता में न कहानी में। न उपन्यास में। उसके अंतर्मन में नहीं जाया गया। वे हर घर में, हर कहीं हैं, आबादी के पचपन फीसद बताए जाते हैं। राजनेता, विविध दल उनको अपनी ओर आकर्षित करने में लगे हैं। वे फेसबुक पर हैं, वे ट्विटर पर हैं, वे तुरंता उत्तेजक ओपीनियनों में हैं। वे परस्पर कटाक्षों में हैं, वे एक दूसरे को नीचा दिखाने वाले कमेंटों में हैं।
यह इस लेखक की मोबाइल मरीचिका में मगन युवाओं के अलबेले और अनजान मन को छूने की कोशिश भर है। यह उसके राग-विराग को, उसके अतीत-व्यतीत को, उसके वर्तमान को टटोलने की कोशिश भर है। कि जैसे आप उससे दो मिनट बात कर लिए हों। इसका मतलब यह नहीं है कि यह पीढ़ी अनुत्पादक है या अरचनात्मक है या कल्पना-रहित है या भविष्य-रहित है या असामाजिक है। वह हर हाल में ‘भिन्न सामाजिक’ है। उसका ‘भिन्न सामाजिक’ होना उसे एक ही साथ हमसे दूर करता है और अनिवार्य भी बनाता है।
उसकी लगावट देखनी हो तो तार की विदाई के साथ-साथ आ रहे उस बडेÞ विज्ञापन को भी देखा जा सकता है जिसमें अतीत से, पुराने से उसकी लगावट का एक नया अध्याय रचा जाता दिखता है।
यह एक कार कंपनी और एक अंग्रेजी अखबार का विज्ञापन है, जो कार की तरह और अखबार की तरह ही तुरंता तात्कालिक है। कार खरीदी जाते ही कीमत गिराती जाती है और नित नए मॉडलों में हर क्षण पुरानी होती जाती है; अखबार शाम तक रद्दी हो जाता है। कार-कबाड़ देखने के लिए आप दिल्ली की मध्यवर्गीय सोसाइटियों पर नजर दौड़ाइए तो मालूम हो जाएगा कि वहां कारें आदमियों से कहीं ज्यादा हैं। चार रुपए के अखबार की रद््दी दस रुपए किलो में बिकती है।
हम विज्ञापन पर लौटें: पुरानी चीजों का एक बहुत ऊंचा-सा बड़ा-सा ढेर एक जगह बना है जिसमें घर में काम आने वाली तमाम पुरानी चीजें फेंकी गई हैं; एक-दो लोग उसको लिए जा रह हैं फेंकने। अंधेरा है। तभी पार्श्व में एक कोरस गूंजने लगता है: तू तू करने में क्या है मजा/ अब हम ही मैं और मैं ही हम! गाना बजता है, उधर एक युवती एक मशाल लेकर उस पुराने ढेर में आग लगा देती है। लिखा आता है: आइ विल बी चेंज! यह संदेश देने वाली है एक कार कंपनी, एक अंग्रेजी अखबार!
पुरानी चीजों के साथ इस विज्ञापन में जो संबंध बन रहा है उसी तरह का संबंध एक अन्य विज्ञापन में बनाया जाता है कि जिसमें एक आॅनलाइन कंपनी को दिखा कर संदेश दिया जाता है। पुरानी कार हो गई बेच दे, पुरानी गिटार हो गई बेच दे। संदेश है: यहां सब कुछ बिकता है।
पुराने का जलना, हम ही मैं और मैं ही हम या उधर सब कुछ बिकता है कहना कानों में अनेकार्थ वाची हो उठता है।
यह है संदेशों के इशारों से मन का मैनेजमेंट!
यह पुरानी जीन्स और गिटार वाले गाने से आगे की बात है। बिकने में ‘विराग’ कुछ इस तरह पैदा हो रहा है कि पुरानी जीन्स और गिटार अतीत-राग, नॉस्टेल्जिया नहीं देते, कूड़े के ढेर में तजा दिए जाते हैं!
पुराने के पुनरुपयोग की जगह उसे बाहर फेंक देना, जला देना एक क्रूर क्रिया है। तारघर के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाना ऐसी ही क्रिया है।