कैसे दुकानदार आपकी जेब से पैसे निकालते हैं

how shopper withdraw money from your pocket


क्या आपने कभी सोचा है कि क्यों सुपर बाज़ार में चॉकलेट उस जगह रखी होती हैं जहां बिल बनते हैं। क्यों साबुन या शक्कर जैसी चीज़ें उस जगह रखी होती हैं जहां पहुंचने के लिए आपको पूरी दुकान से गुज़रना होता है।

या फिर क्यों किशोरों के इस्तेमाल की चीज़ें जैसे टीशर्ट या डीओडोरेंट कुछ बेतरतीब ढंग से रखी होती हैं। इत्र, गहने और मेकप का सामान दुकान में सामने घुसते ही मिलता है।

संयोग नहीं विज्ञान
आज पूरी दुनिया में ग्राहक ज़्यादा चतुर सुजान होता जा रहा है। चारों तरफ फ़ैली आर्थिक अनिश्चितता के चलते लोग सोच समझ कर खर्च करने का प्रयास कर रहे हैं। बड़े दुकानदार 'तू डाल-डाल मैं पात-पात वाला खेल' खेल रहे हैं।

हममें से बहुत लोग यह समझते हैं कि यह सब ललचाने की कोशिश है लेकिन बावजूद इसके हमेशा इन फंदों से बच नहीं पाते।

पैसे बचाने के विशेषज्ञ मार्टिन लुइस कहते हैं "जब खरीददारी की बात होती है तो हम सब के अंदर एक बच्चा होता है। हर दुकानदार का ध्येय यह रहता है कि किस तरह आपको यह अहसास दिलाया जाए कि आप कम पैसों में ज़्यादा मूल्यवान चीज़ें ले रहे हैं। आपका ध्येय उनको पैसा कमाने से रोकना होना चाहिए।"

ब्रिटेन में बीबीसी लैब यूके बिग मनी टेस्ट के एक शोध का कहना है कि आपकी आर्थिक स्थिति को आपके आर्थिक मामलों का ज्ञान, पढ़ाई, आमदनी और सामाजिक परिवेश सब मिला कर भी 'अचानक की गई खरीददारी' जितना प्रभावित नहीं करते।

दुनियाभर में सुपर बाज़ार के महारथियों की कुछ चुनिंदा तरकीबें।

सोची समझी बेतरतीबी

पूरे समय मॉल की शॉपिंग फ़्लोर को साफ़ करने की जगह वहां काम करने वाले एक सोचे समझे तरीके से चीज़ों को बेतरतीब भी करते हैं। ऐसा वो इसलिए करते हैं क्योंकि लोगों को देख कर लगे कि इन चीज़ों को खूब देखा और लिया जा रहा है।

यह तरकीब युवाओं पर, खास तौर से 21 साल से कम उम्र के लोगों पर अधिक कारगर होती है जो मचल कर अचानक खरीददारी करते हैं।

उपभोक्ताआ व्यवहार के विशेषज्ञ फ़िलिप ग्रेव्स कहते हैं कि युवाओं को इस बात से बहुत फ़र्क पड़ता है कि दूसरे क्या खरीद रहे हैं। ग्रेव्स के अनुसार युवा अपने माता पिता से अलग उस तरह के दिखना चाहते हैं जो उन्हें लगता है कि उनसे मिलते जुलते हैं।

इसके वैज्ञानिक कारण हैं। ब्रिटेन की ओपन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मार्क ओ क्रीवी कहते हैं कि "युवाओं के दिमाग का वो हिस्सा जो उन्हें मचल उठने से रोके वो अधिक विकसित नहीं होता है।"

ब्रांड छुपाना
यह एक ऐसे मौके पर किया जाता है जब चारों तरफ आर्थिक संकट व्याप्त हो जैसा की अभी दुनिया के ज़्यादातर हिस्से में है। ऐसे समय में वो लोग जिनकी आमदनी कम नहीं हुई है वो भी संभल कर खर्च करते हैं और सस्ती चीजें खरीदने की कोशिश करते हैं।

उपभोक्ता मामलों के जानकार जोसेफ़ स्टेटन कहते हैं "जब लोगों के पास पैसे कम होते हैं तो वो केवल सस्ता ही नहीं खरीदना चाहते। वो यह भी मानना चाहते कि उनका निर्णय सही है।"

इस तरह की भावना को बल देने के लिए सामान से 'सस्ता' या 'किफायती' जैसे शब्द हटा दिए जाते हैं और उसकी जगह 'उचित मूल्य' और 'समझदारी पूर्ण निर्णय' की बात की जाती है।

जैसी जगह वैसा ऑफ़र
गूगल और फ़ेसबुक पर आप पहले से ही केवल उस तरह के विज्ञापन देखते हैं जो आपकी पसंद से मिलते हैं अब इस डाटा का उपयोग बड़े दुकानदार ख़ास इलाकों और दुकानों पर भी करना आरंभ कर रहे हैं।

वो उस इलाके में प्रचलित चीज़ों के लिए ख़ास ऑफ़र लाते हैं जिससे आप उनका सामान खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं। ऐसे ऑफ़र उनकी हर दुकान और हर शहर में उपलब्ध नहीं होते।

आपकी नज़रों पर निगाह
पश्चिम में कई देशों में यह शुरू हो गया है और भारत में भी यह तकनीक जल्द ही यह आ सकती है। आम तौर पर लोग परफ़्यूम की दुकानों के पास से गुज़रते हैं इत्र का सैंपल देखते हैं निकल जाते हैं।

अब शेल्फ़ के ऊपर लगा एक कैमरा आपकी नज़रों को पढ़ेगा और आपकी आंखें जहां ठिठक रहीं हैं उस ब्रांड के परफ़्यूम के बारे में पास की लगे स्क्रीन पर चित्र दिखाना आरंभ कर देगा।

एक अन्य विशेषज्ञ पॉल डोई कहते हैं "यह उपभोक्ता तो चौंकाता है उसे ललचाता है।" गूची जैसे ब्रांड ऐसा कर रहे हैं।

कई सॉफ्टवेयर आपके बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी चुटकियों में जुटा सकते हैं। मसलन आपकी उम्र, लिंग और आपकी पसंद और उस हिसाब से वो आपको विज्ञापन दिखाते हैं।